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यक्ष प्रश्न

चौथा स्तंभ कब बनेगा निष्पक्ष व निर्भीक ?

अमृतांज इंदीवर 

पूरे साल लोकतंत्र व राजनीति को लेकर बहस व गहमा-गहमी मीडिया में बनी रही। विकास व बुनियादी मुद्दों को दरकिनार करके टीआरपी की आपाधापी लगी रही। सभी चैनलों ने अपने चहेते नेताओं की महिमा मंडित करने में कोर-कसर नहीं छोड़ा। भड़ास मिटाने के लिए लोगों ने सोशल मीडिया का सहारा लिया। जमकर थूकम-फजीहत होती रही। इससे इतर मुख्यधारा की पत्रकारिता जनतंत्र से अधिक राजनेताओं व पूंजीपतियों के इर्द-गिर्द घूमती रही, जो लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। जब लोकतंत्र की आवाज व प्रहरी निष्पक्षता व निर्भीकता का दामन छोड़ दे तो देश का बुनियादी विकास की कल्पना करना बेमानी है। 

पूरी दुनिया में युग, देशकाल व परिस्थितियों के फलस्वरूप आंदोलन व क्रांतियां होती रहती है। कभी-कभार तो यह क्रांति रक्त-रंजित तथा एक साथ कई मुल्कों में अशांति, असहिष्णुता, विद्वेष की भावनाओं को फैलाया है। परिणामतः युद्ध, कोहराम, त्राहिमाम जैसे विभीषिकाओं का रूप अख्तियार किया है। सभी के मूल में साम्राज्य, दबदबा, जबरन अधिकार को पोषित करने का स्वच्छ संकेत दृष्टिगोचर होता है।
वस्तुतः निरीह, बेबस, गरीब, मजदूरवर्ग को इस खेल का हिस्सा बनना पड़ता है। जाहिर सी बात है कि जिस मुल्क की अधिकांश जनता अज्ञान, अशिक्षित, गरीब, कमजोर होगी, वहां की सरकारें, मिशनरियां, धार्मिक संस्थाएं आदि अपना उल्लू सीधा करने के लिए उनकी कुर्बानियां देने में नहीं हिचकती। इनके रक्त से देश, राज्य व समाज की हरेक चीजें सिंची जाती है। रूतबा व सत्ता पर कब्जा किया जाता है। उनकी जुबान बनने की बजाय उनके सीधापन एवं भलमनसाहत का बेजा इस्तेमाल किया जाता है। उन्हें प्रबुद्धजनों, हुक्मरानों के प्रति अटूट आस्था व विश्वास रहती है कि उनके मुद्दे व दावे पर खड़ा उतरेंगे। परंतु जनता के विश्वास का गला घोटा जाता है। उन्हें प्रलोभन देकर दिवा सपना दिखाया जाता है।

ऐसे में लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण एवं लाजिमी हो जाती है कि जनता की आवाज को, दुख-दर्द को, समस्याओं को, आर्थिक, सामाजिक विषमताओं तथा विसंगतियों को उजागर करें। शासन व सरकार का ध्यानाकर्षण प्रगल्भ करें। पर, खेद है कि लोकतंत्र का यह चौथा स्तंभ किंकर्त्तव्यविमूढ़, धन-लोलुप एवं पूंजीपतियों की कठपुतली बन गया है। देश में मीडिया की भूमिका कमजोर पड़ने लगी है। कुछेक मीडियाकर्मी विभिन्न पार्टियों के  बतौर प्रवक्ता की हैसियत से रिर्पोटिंग करने लगे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि एंकर व रिर्पोटर कम, पार्टी प्रचारक अधिक हो गए हैं।
आज मीडिया पर बाजार के प्रभाव से इंकार नहीं किया जा सकता। टीआरपी बढ़ाने की होड़ में खबरें बनाई जा रही है। न्यूज उत्पाद की तरह स्क्रीन पर बेचा जा रहा है। इस दौड़ में भारतीय मीडिया शतक बनाने में पीछे नहीं है। खबरें नगर-महानगर, घपले-घोटाले, हत्या, बलात्कार, अपहरण आदि तक सीमित होती जा रही है। आजकल तो हद ही हो गई है, जब स्टूडियो में सभी दलों के नेताओं के बीच ज्वलंत मुद्दे पर बहस होती है, तो अपशब्दों की वर्षा सी होने लगती है। जान पड़ता है कि मीडिया की पकड़ राजनेता, मंत्री, ऑफिसर, तक परिलक्षित हो रही है।
दूसरी ओर गांव के किसान-मजदूर, समस्याएं, कुरीतियां, कुप्रथाएं, आडंबर, गरीबी, बेरोजगारी जैसे मुद्दे गौण होते जा रहे हैं। प्रिंट हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इनके लिए गांव की बुनियादी खबरें-कृषि, पशुपालन, शिक्षा , स्वास्थ, जीविका आदि बिकाऊ नहीं बन रही है। फिलवक्त लोकतंत्र की मजबूती के लिए जनमीडिया (नागरिक पत्रकारिता) को गांव कस्बों से लेकर शहर तक बढ़ावा देना चाहिए, ताकि आमजनों की आवाज को अंजाम मिल सके।

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