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उड़ान


अपने बलबूते उड़ान भरती महिलाएँ 


Amritanj Indiwar
कल तक चहारदीवारी में कैद घूंघट की ओट में आंसू बहाना जिनकी नियति थी। घर-परिवार की सेवा-टहल, पतिदेव की खुषामदगी और सासू मां की कहासुनी से आकुल-व्याकुल मन आजादी के लिए तरसता रहता था। आज वहीं 21वीं सदी की हौसले की उड़ान भरती महिलाएं पुरुशों से कंधे-से-कंधे मिलाकर दुनिया के सामने अपना लोहा मनवा रही है। आज वह दासी नहीं, पुरुशों का गुलाम नहीं व किसी का मुहताज नहीं। अपने प्रतिभा, अदम्य साहस, हौसले व जज्बे के बलबूते जीवन की नई इबादत लिख रही हैं। अपितु सामाजिक वर्जनाओं को तोड़कर उन्मुक्त गगन में सपनों के नए पंखों को नई मंजिल दे रही हैं। कोई भी क्षेत्र आज महिलाओं से अछूता नहीं है। आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, षैक्षणिक आदि प्रतिस्पर्धा में डटकर सामना कर रही हैं। खेलकूद, विज्ञान प्रोद्यौगिकी, मीडिया, सेना, समाज सेवा, राजनीति सभी जगहों पर अपनी प्रतिभा का परचम लहरा रही हैं। 
तुलसीदास की वही नारी नहीं जिसे- ‘‘ढोल गवांर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।।’’ दोहे से अलंकृत किया जाता रहा है। सदियों की बंदिषों व रूढि़यों को तोड़कर सौ कदम आगे बढ़ती आधी आबादी खुले में सांस ले रही है। विज्ञान का मानना है कि महिलाओं में पुरुश के मुकाबले तीन गुना अधिक काम करने की क्षमता है। घर-गृहस्थी के साथ-साथ पढ़ाई-लिखाई और अनुसंधान करने में उत्कृश्टता ला सकती हैं। ईष्वर ने महिलाओं को स्रश्टा के रूप में वसंुधरा पर भेजा है। महिलाएं कोमलांगिनी नहीं, बल्कि इनके अंदर कला, विज्ञान, साहित्य, सेवा व वात्सल्य की अपार धारा बहती है। सिंधु घाटी सभ्यता के युग में समाज मातृ-प्रधान था। उस समय नारियों की अधिक मान-मर्यादा थी। माताएं परिवार में अधिक स्नेह व श्रद्धा की पात्रा थी। ऋग्वेद के अनुसार वैदिकालीन समाज में विदुशी महिलाएं अनेकानेक ऋचाएं तक का प्रणयन किया है। ऐसा माना जाता है कि गुप्तकाल के समय महिलाओं का बेहद सम्मान था। संघमित्रा जैसी स्त्रियां विदेषों तक धर्म-संदेष लेकर गयी थी।  
समय के थपेड़े के साथ महिलाओं के साथ दोहन, षोशण, संत्रास, रूढि़यां आदि जकड़ती गई। दिनोंदिन महिलाओं की स्थिति बद-से-बदतर होती गयी। जो स्रश्टा थी वह भोग्या बन गयी। महाभारत काल में द्रोपदी का चीर-हरण, सीता की अग्नि परीक्षा आदि घटनाएं आज भी पुरुशवादी मानसिकता का जीता जागता नमूना है। इसलिए कहा गया है-
‘‘पिता रक्षित कौमारे, भर्ता रक्षित यौवने।
पुत्र रक्षित वाद्धक्ये, न नारी स्वतंत्रमर्हति।।’’
समय चक्र के साथ महिलाओं ने जीना सीख लिया और खुदी को बुलंद करते हुए समाज व देष के सामने दृढ इच्छा षक्ति, अदम्य साहस, बुलंद हौसले से देष-दुनिया में अपनी प्रतिभा का पताका लहराया। समाज में आज ऐसी दर्जनों महिलाएं हैं, जो अपने बलबूते असहाय, षोशित, दमित, बेवष, परित्यक्त व निराश्रित के जीवन में आषा की किरणें बिखेर रही हैं। जी हां यह कोई काल्पनिक कहानी नहीं बल्कि हकीकत हैं।
जिंदगी का कोई न कोई मकसद होता है। यदि आपका मकसद दूसरे लोगों की जिंदगी व सपने से जुड़ जाये, तभी जीना सार्थक होता है। कुछ इसी सोच के साथ एक जांबाज महिला ने करीब 28 हजार महिलाओं के सपने, उनके दर्द, उनकी पीड़ा से जुड़ कर अपनी संघर्शमय जिंदगी को समाज के लिए समर्पित कर दिया है। उस निर्भीक महिला का नाम है पूनम कुमारी! 
मुजफ्फरपुर जिले की महिलाओं के बीच ‘दीदी’ नाम से पुकारी जाती हैं। दीदी कहने में पीडि़त, प्रताडि़त व परित्यक्त महिलाओं को अपनापन का भाव महसूस होता है। जिले में किसी महिला के साथ दुश्कर्म की धटना हो, डायन के नाम पर मैला पिलाने व निर्वस्त्र करने का वाकया हो, पूनम दीदी अपनी लड़ाकू टीम के साथ वहां पहुंच जाती हैं। अपनी पूरी ताकत लगा कर पीडि़ता के न्याय के लिए कूद पड़ती हैं मैदान में। सुमित्रा तेजाब कांड में दीदी की भूमिका प्रषंसनीय रही। कुछ दबंगों ने मुषहरी के द्रोणपुर गांव की एक कमजोर वर्ग की महिला के निजी अंगों में तेजाब डाल दिया था। दिल दहला देने वाली इस घटना से व्यथित पूनम ने पीडि़ता के न्याय की लड़ाई तो लड़ी ही, उसे ब्लड भी डोनेट किया। गायघाट की चर्चित डायन प्रताड़ना कांड में पूनम दीदी के नेतृत्व में महिलाओं की एक टीम ने अंधविष्वास में आकंठ डूबे पूरे गांव से मोर्चा लिया। इस लड़ाई में टीम की कुछ महिलाओं को ग्रामीणों का विरोध भी सहना पड़ा, लेकिन डिगी नहीं। पूनम को सूमेरा की एक नाबालिग बच्ची के साथ दुश्कर्म के मामले में हस्तक्षेप करने के कारण एक दबंग विधायक की धमकी भी मिली। अपने एक दषक के सामाजिक जीवन में पूनम ने जिंदगी से ऊब चुकीं सैकड़ों महिलाओं को न्याय दिलाया है, उसकी आवाज बनी हैं, आंसू पोछे हैं। 

समाज सेवा में अपना जीवन होम करनेवाली पूनम दीदी का निजी जीवन संघर्शपूर्ण रहा। षादी के सात साल बाद एमए का अंतिम पेपर देने के एक दिन बाद पति का देहांत हो गया। अचानक खुषहाल जिंदगी में अंधकार छा गया, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। संघर्श करना कबूल किया। दो बच्चों के साथ जीवन की गाड़ी बढ़ती रही। पढ़ाई को जारी रखने का फैसला लिया। मुषहरी प्रखंड के छपरा मेघ से 1992 में मुजफ्फरपुर षहर आ गयी। एक साल बाद जिला स्कूल में आयोजित एक कार्यक्रम में षामिल होने ननद के साथ गयी थीं। उस कार्यक्रम में महिला समाख्या की एक टीम भी भाग ले रही थी। टीम से उनका परिचय हुआ और काम करने का आॅफर मिला। 15 दिनों की ट्रेनिंग लेने पटना गयीं। इसी ट्रेनिंग से समाज के दुख-दर्द का एहसास हुआ और ठान लिया कि अपनी जिंदगी समाज के लिए लगानी है। ट्रेनिंग से लौटने के बाद बेतिया में बतौर एआरपी के रूप में मैनाटांड़, चनपटिया, सिकटा में थारूओं व कमजोर वर्ग की महिलाओं के बीच काम किया। उस समय बेतिया अपराध के लिए कुख्यात था। ऐसे माहौल में थुमहां में साक्षरता केंद्र में रहना और रात में आसपास के गांवों में बैठक कर लोगों को जागरूक करना बड़ी चुनौतीपूर्ण काम रहा। इसी बीच ससुर का देहांत हो गया। फिर मुजफ्फरपुर लौटना पड़ा। इसी बीच सिस्टर सुजाता से मुलाकात हुई, जो बाद में रोम चली गयीं। सुजाता ने बीइपी के स्पीडी राघवन से मिलवाया। पूनम की प्रतिभा से प्रभावित होकर 2006 में बिहार महिला समाख्या सोसाइटी की डीपीसी बनाया गया। सात साल की इस अवधि में पूनम कुमारी ने महिला सषक्तीकरण के लिए दिन-रात लगी रहीं। सैकड़ों पीडि़त-प्रताडि़त महिलाओं के दर्द पर मरहम लगाया। हजारों महिलाओं को रोजगार से जोड़ा, सम्मानित जीवन जीना सिखलाया, अत्याचार से लड़ना सिखलाया। जिले में 16 केजीबीवी, दो सौ जगजगी केंद्र, 1640 महिला समूह समेत कई प्रोजेक्ट को सफलतम तरीके से संचालित कर जिले में अपनी एक अलग पहचान बनायी। पूनम ने दलित-महादलित की बच्चियों को स्कूल से जोड़ा। यूनीसेफ स्टार व हनी गर्ल अनीता, कराटे में चार लड़कियों समेत करीब एक दर्जन गांव की लड़कियां पूनम दीदी व उनकी टीम के नेतृत्व में निखरी और देष-विदेषों तक सफलता का परचम लहराया है।    
बेगूसराय के पचम्बा में जन्मीं पूनम कुमारी बताती हैं कि मेरे गांव की लड़कियां सातवीं से आगे नहीं पढ़ पाती थीं। मुझे भी आगे पढ़ने की इजाजत घर से नहीं मिली थी। पिता, चाचा कोई तैयार नहीं थे। मां ने षर्त रखी कि सातवीं में प्रथम आओगी, तभी अगली कक्षा में नामांकन होगा। मैं प्रथम श्रेणी से उŸाीर्ण हुईं, तब 8वीं में बागवाड़ा हाईस्कूल, बेगूसराय में नामांकन हुआ। मैट्रिक में भी प्रथम आयीं। मुजफ्फरपुर स्थित एमडीडीएम काॅलेज से अर्थषास्त्र में एमए किया। समस्तीपुर से बीएड उŸाीर्ण र्हइुं। वे कहती हैं कि जब रोती हुई महिलाओं का आंसू पोछती हूं, तो इंसान होने पर फख्र होता है। 

पूनम के काम को सम्मान भी मिला। युवा व खेल मंत्रालय की ओर से साक्षरता पर काम करने के लिए एवं जिला आपदा प्रबंधन की ओर से 2004 में बाढ़पीडि़तों के बीच काम करने के लिए क्रमषः षील्ड और प्रषस्ति पत्र देकर सम्मानित किया गया। 

लीक से अलग हटकर कुछ कर गुजरने का जज्बा हो, संकल्पषक्ति व आत्मविष्वास हो तो कठिन से कठिन काम भी आसान हो जाता है। रिंकु कुमारी की कहानी भी संकल्पषक्ति व जज्बें से लबरेज एवं प्रेरणादायी है। 14 साल की उम्र में बाल विवाह का दंष झेलने एवं तीन बार मैट्रिक फेल करने के बाद बिरले ही सफलतम कहानी की पटकथा लिख पाने की जहमत उठाना है। रिंकु निराषा से भरी भीड़ से खुद को अलग रखने का संकल्प लेकर सफल जीवन जीने का संकल्प लेती हैं और चल पड़ती हैं संधर्श की राह पर। 
षादी के बाद चूल्हा-चैकी का जिम्मा, दो बच्चों व पूरे परिवार का भार उठाकर भी नहीं थकती है। खुद को किताबों से जोड़ती हैं। दिन-रात मेहनत कर मैट्रिक परीक्षा द्वितीय श्रेणी से पास करती हैं। रिंकु बताती है कि वह पल मेरे जीवन का सबसे खुषी का था, क्योंकि तीन मैट्रिक में असफलत होने के बाद लगता था कि मेरे नसीब में सरस्वती का आषीर्वाद नहीं है। माता-पिता भी कहते थे कि इ पढ़नेवाली नहीं है। लेकिन जब मैट्रिक पास की तो आत्मविष्वास आया कि मैं भी जीवन में कुछ कर सकती हूं और फिर आगे की पढ़ाई जारी रखी। पति का पूरा साथ मिला। वे कदम-कदम पर साथ रहे और उन्हीं की बदौलत आज मैं डबल एमए कर पायी हूं। अभी हिन्दी साहित्य से पीएचडी व बीएड कर रही हूं। 
रिंकु वाकई खुद को साबित किया है कि यदि चाह है तो राह है। खासकर उन महिलाओं के लिए रिंकु प्रेरणा बन गयी है, जो सोचती है कि षादी के बाद पढ़ाई संभव नहीं है। रिंकु आज घर-परिवार व पढ़ाई के साथ-साथ सामुदायिक मीडिया ‘अप्पन समाचार’ के लिए भी काम कर रही हैं। जब वे कैमरा उठाती हैं तो एक प्रषिक्षित कैमरामैन की तरह दिखती है। 2008 में बाढ़ को कवर करने तीन लड़कियों की टीम के साथ सहरसा गयी थीं। पहली बार कैमरा पकड़ा था। मुख्यमंत्री के कार्यक्रम को षूट करना था। डर लग रहा था, लेकिन जब कार्यक्रम कवर की, तो सिर्फ वाहवाही मिली। कैमरा पकड़ने के बाद काम में इतनी मग्न हो गयी कि पता ही नहीं चला कि कब पैर के अगूंठे जख्मी हो गये हैं। लगातार खून निकलता रहा, लेकिन कैमरा का षटर नहीं गिरा। 
रिंकु ने रांची में डाॅक्यूमेंट्री का पांच दिनों का प्रषिक्षण भी प्राप्त किया है। चरखा के मीडिया वर्कषाॅप में भी अप्पन समाचार की टीम के साथ भी षामिल हुई और अपनी सफलता की कहानी देषा के कई राज्यों से आये प्रतिभागियों के साथ षेयर की। रिंकु को ग्रामीण पत्रकारिता में बेहतर काम करने के लिए ‘एसपी सिंह पत्रकारिता पुरस्कार’ मिल चुका है। पायोनियर व हिंदू जैसे अंगे्रजी अखबारों ने रिंकु के लिखे लेख को प्रकाषित किया है। इस उपलब्धि से आज रिंकु उत्साहित है।

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